Chhattisgarh

CG News: बंपर लाभ का जरिया बन रही बांस की खेती

भाटापारा- बताइए ऐसी फसल का नाम, जिसे रासायनिक या जैविक खाद की जरा भी जरूरत नहीं होती। न्यूनतम पानी के साथ ली जाने वाली इसकी फसल के बीच की खाली जगह पर अदरक, हल्दी या सफेद मूसली की भी बोनी की जा सकती है। जी हां, इसका नाम है बांस, जिसे पौध रोपण में इस बार भरपूर जगह मिल रही है।

पौधरोपण की चल रही प्रदेश स्तर की योजना में जिस प्रमुखता के साथ बांस को रखा जा रहा है, वह हैरत में डाल रहा है कि आखिर बांस को इतनी तवज्जो क्यों दी जा रही है ? दरअसल इसके पीछे वह अनुसंधान है जिसमें अनेक गुणों के होने का खुलासा हुआ है। जिसकी मदद से जलवायु परिवर्तन के इस दौर में भी किसानों की घटती आय को बढ़ाई जा सकेगी । सीधा मतलब यह है कि लगभग शून्य लागत में इसकी फसल कमाई का भरपूर मौका देती है।

इसलिए बांस की फसल

जलवायु परिवर्तन के दौर में पारंपरिक खेती में लागत लगातार बढ़ रही है। ऐसी स्थितियों में रुझान ऐसी फसलों की ओर बढ़ रहा है, जिसमें लागत कम आती हो। अनुसंधान के बाद मिली सफलता से किसानों को बांस ने सहजता से अपनी ओर आकर्षित किया। फलतः रासायनिक और जैविक खाद के बगैर तैयार होने वाली यह फसल आज तेजी से विस्तार ले रही है। बता दें कि बांस ही एकमात्र ऐसा पौधा है, जिसे सबसे कम पानी की जरूरत होती है।

बोनी और फसल

बांस की बोनी के लिए मार्च का महीना सबसे उपयुक्त माना गया है। दोमट मिट्टी, जिसका पी एच मान 6.5 से 7.5 हो, में यह अच्छा परिणाम देती है। बोनी के पहले सप्ताह में ही पौधे निकलने लगते हैं । 1 हेक्टेयर में 625 पौधौं के रोपण के बाद पांचवे बरस 3125 और आठवें बरस 6250 बांस की फसल तैयार होती है। बीच के समय में जरूरत के अनुसार और भी कटाई की जा सकती है। यहां यह जान लेना जरूरी होगा कि बीज के अलावा जड़, कलम या शाखाएं भी लगाई जा सकतीं हैं।

दोहरा लाभ ऐसे

सतत लाभ देने वाली बांस की फसल के साथ इसके बीच की खाली जगह पर अदरक, हल्दी और सफेद मूसली की भी फसल ली जा सकती है। यह दोहरा लाभ देगा। सबसे बड़ा लाभ यह कि बांस के पौधों की बढ़वार के लिए न रासायनिक खाद की जरूरत होगी, ना जैविक खाद की। इसके अलावा इसकी फसल न्यूनतम पानी में भी तैयार हो सकती है। और हां, कीट प्रकोप जैसी आशंकाएं भी नहीं के बराबर हैं।

दिलचस्प जानकारी

वन्य जगत में बांस ही इकलौता ऐसा पौधा है, जो अपनी आयु पूरी करने के बाद ही मरता है। बता दें कि इसकी उम्र 32 से 48 वर्ष मानी गई है। यही वजह है कि इसे भूमि संरक्षण और मिट्टी कटाव रोकने में सबसे सक्षम माना गया है। पर्यावरण की रक्षा में इसका योगदान इसलिए अमूल्य है क्योंकि यह वायुमंडल से 66% अधिक कार्बन डाइऑक्साइड सोखता है और इतना ही ऑक्सीजन देता है।

किसानों का हरा सोना

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